रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया
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आबरू शर्त है इंसाँ के लिए दुनिया में
करता मैं दर्दमंद तबीबों से क्या रुजूअ
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
रास्ते और तवाज़ो' में है रब्त-ए-क़ल्बी
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
ज़ाहिद उमीद-ए-रहमत-ए-हक़ और हज्व-ए-मय
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
शाएर को मस्त करती है तारीफ़-ए-शेर 'अमीर'
हिलाल ओ बद्र दोनों में 'अमीर' उन की तजल्ली है