आबरू शर्त है इंसाँ के लिए दुनिया में
न रही आब जो बाक़ी तो है गौहर पत्थर
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शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द
हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
गिरह से कुछ नहीं जाता है पी भी ले ज़ाहिद
पहले तो मुझे कहा निकालो
मिसी छूटी हुई सूखे हुए होंट
जब से बाँधा है तसव्वुर उस रुख़-ए-पुर-नूर का
तरफ़-ए-काबा न जा हज के लिए नादाँ है
मैं रो के आह करूँगा जहाँ रहे न रहे
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी
रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल