मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
निगह नीची किए वो सामने मदफ़न के बैठे हैं
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ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'
वस्ल की शब भी ख़फ़ा वो बुत-ए-मग़रूर रहा
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा
वादा-ए-वस्ल और वो कुछ बात है
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है
अल्लाह-री नज़ाकत-ए-जानाँ कि शेर में
रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी
आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
अभी आए अभी जाते हो जल्दी क्या है दम ले लो
पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश