सादा समझो न इन्हें रहने दो दीवाँ में 'अमीर'
यही अशआर ज़बानों पे हैं रहने वाले
Faiz Ahmad Faiz
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वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा न पूछिए
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब
हुआ जो पैवंद मैं ज़मीं का तो दिल हुआ शाद मुझ हज़ीं का
पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुश्किल बहुत पड़ेगी बराबर की चोट है
अभी आए अभी जाते हो जल्दी क्या है दम ले लो
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला कर कहा
वस्ल में ख़ाली हुई ग़ैर से महफ़िल तो क्या
बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की