बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
भेजनी हैं एक कम-सिन के लिए
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अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
गिरह से कुछ नहीं जाता है पी भी ले ज़ाहिद
शमशीर है सिनाँ है किसे दूँ किसे न दूँ
लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में
ख़्वाब में आँखें जो तलवों से मलीं
ख़ून-ए-नाहक़ कहीं छुपता है छुपाए से 'अमीर'
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'