मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो
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मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र
'अमीर' अब हिचकियाँ आने लगी हैं
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा
आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया
हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
ख़्वाब में आँखें जो तलवों से मलीं
मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा
पहले तो मुझे कहा निकालो
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं
रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
नावक-ए-नाज़ से मुश्किल है बचाना दिल का