मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा
यही जवाब है इस का कोई जवाब नहीं
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शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
दिल जुदा माल जुदा जान जुदा लेते हैं
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
वाए क़िस्मत वो भी कहते हैं बुरा
कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद