सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
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ख़ुश्क सेरों तन-ए-शाएर का लहू होता है
अभी आए अभी जाते हो जल्दी क्या है दम ले लो
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
बात करने में तो जाती है मुलाक़ात की रात
गिरह से कुछ नहीं जाता है पी भी ले ज़ाहिद
वस्ल की शब भी ख़फ़ा वो बुत-ए-मग़रूर रहा
देख ले बुलबुल ओ परवाना की बेताबी को
शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द
जो चाहिए सो माँगिये अल्लाह से 'अमीर'
हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा
कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं
शैख़ कहता है बरहमन को बरहमन उस को सख़्त