कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं
जल उठता है जो ये पहलू तो वो पहलू बदलते हैं
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'अमीर' अब हिचकियाँ आने लगी हैं
शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
पिला साक़िया अर्ग़वानी शराब
चाँद सा चेहरा नूर की चितवन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह
ख़ुश्क सेरों तन-ए-शाएर का लहू होता है
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर
अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़
हिलाल ओ बद्र दोनों में 'अमीर' उन की तजल्ली है