आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
तख़्ते पे ग़ुस्ल के जो लिटाया अकड़ गया
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मस्जिद में बुलाते हैं हमें ज़ाहिद-ए-ना-फ़हम
साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना
बाक़ी न दिल में कोई भी या रब हवस रहे
कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते
किस ढिटाई से वो दिल छीन के कहते हैं 'अमीर'
वाए क़िस्मत वो भी कहते हैं बुरा
शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
अल्लाह-री नज़ाकत-ए-जानाँ कि शेर में
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब
अल्लाह-रे सादगी नहीं इतनी उन्हें ख़बर
समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का
ख़ून-ए-नाहक़ कहीं छुपता है छुपाए से 'अमीर'