अल्लाह-री नज़ाकत-ए-जानाँ कि शेर में
मज़मूँ बंधा कमर का तो दर्द-ए-कमर हुआ
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ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
अभी आए अभी जाते हो जल्दी क्या है दम ले लो
बाद मरने के भी छोड़ी न रिफ़ाक़त मेरी
मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा
हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
मिसी छूटी हुई सूखे हुए होंट
पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
हाथ रख कर मेरे सीने पे जिगर थाम लिया
आबरू शर्त है इंसाँ के लिए दुनिया में