अल्लाह-रे सादगी नहीं इतनी उन्हें ख़बर
मय्यत पे आ के पूछते हैं इन को क्या हुआ
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यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
तुम को आता है प्यार पर ग़ुस्सा
वस्ल की शब भी ख़फ़ा वो बुत-ए-मग़रूर रहा
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी
रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
क़िबला-ए-दिल काबा-ए-जाँ और है
दिल को तर्ज़-ए-निगह-ए-यार जताते आए
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
ज़ाहिद उमीद-ए-रहमत-ए-हक़ और हज्व-ए-मय