ज़ाहिद उमीद-ए-रहमत-ए-हक़ और हज्व-ए-मय
पहले शराब पी के गुनाह-गार भी तो हो
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है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
बातें नासेह की सुनीं यार के नज़्ज़ारे किए
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
मैं रो के आह करूँगा जहाँ रहे न रहे
मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
वही रह जाते हैं ज़बानों पर
सारा पर्दा है दुई का जो ये पर्दा उठ जाए
बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
किसी रईस की महफ़िल का ज़िक्र ही क्या है
मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र