मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र
आज आप एक बात मेरी मान जाइए
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शैख़ कहता है बरहमन को बरहमन उस को सख़्त
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
या-रब शब-ए-विसाल ये कैसा गजर बजा
माँग लूँ तुझ से तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा न पूछिए
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़
अपनी महफ़िल से अबस हम को उठाते हैं हुज़ूर
रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए
मिसी छूटी हुई सूखे हुए होंट