अपनी महफ़िल से अबस हम को उठाते हैं हुज़ूर
चुपके बैठे हैं अलग आप का क्या लेते हैं
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शाएर को मस्त करती है तारीफ़-ए-शेर 'अमीर'
दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ
नब्ज़-ए-बीमार जो ऐ रश्क-ए-मसीहा देखी
ज़ाहिद उमीद-ए-रहमत-ए-हक़ और हज्व-ए-मय
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
वादा-ए-वस्ल और वो कुछ बात है
न वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है
मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र
मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
आहों से सोज़-ए-इश्क़ मिटाया न जाएगा
'अमीर' अब हिचकियाँ आने लगी हैं