रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी
दिल के दाग़ों का चराग़ाँ और है
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मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
ज़ब्त देखो उधर निगाह न की
तिरा क्या काम अब दिल में ग़म-ए-जानाना आता है
बात करने में तो जाती है मुलाक़ात की रात
शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कहा जो मैं ने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था
मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा
दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ
कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के
बाक़ी न दिल में कोई भी या रब हवस रहे