सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'
जब तक न शेर कहने का हम को शुऊर था
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हिलाल ओ बद्र दोनों में 'अमीर' उन की तजल्ली है
मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो
ख़ून-ए-नाहक़ कहीं छुपता है छुपाए से 'अमीर'
वस्ल की शब भी ख़फ़ा वो बुत-ए-मग़रूर रहा
हुआ जो पैवंद मैं ज़मीं का तो दिल हुआ शाद मुझ हज़ीं का
दिल को तर्ज़-ए-निगह-ए-यार जताते आए
क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़
सादा समझो न इन्हें रहने दो दीवाँ में 'अमीर'
कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं
आया न एक बार अयादत को तू मसीह
मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र