पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया
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रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है
मस्जिद में बुलाते हैं हमें ज़ाहिद-ए-ना-फ़हम
आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन
आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का
वस्ल की शब भी ख़फ़ा वो बुत-ए-मग़रूर रहा
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के
है वसिय्यत कि कफ़न मुझ को इसी का देना