फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का
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ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो
हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ख़ुदा ने नेक सूरत दी तो सीखो नेक बातें भी
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
ख़ून-ए-नाहक़ कहीं छुपता है छुपाए से 'अमीर'
कुछ ख़ार ही नहीं मिरे दामन के यार हैं
तवक़्क़ो' है धोके में आ कर वह पढ़ लें
साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना
क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर
मुश्किल बहुत पड़ेगी बराबर की चोट है