आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन
मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है
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अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
तुम को आता है प्यार पर ग़ुस्सा
साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है
बात करने में तो जाती है मुलाक़ात की रात
जब से बाँधा है तसव्वुर उस रुख़-ए-पुर-नूर का
बरहमन दैर से काबे से फिर आए हाजी
शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
चाँद सा चेहरा नूर की चितवन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह
सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला कर कहा
कौन सी जा है जहाँ जल्वा-ए-माशूक़ नहीं