पहले तो मुझे कहा निकालो
फिर बोले ग़रीब है बुला लो
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चाँद सा चेहरा नूर की चितवन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह
ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
बोसा लिया जो उस लब-ए-शीरीं का मर गए
तिरा क्या काम अब दिल में ग़म-ए-जानाना आता है
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया
वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के
सादा समझो न इन्हें रहने दो दीवाँ में 'अमीर'