बोसा लिया जो उस लब-ए-शीरीं का मर गए
दी जान हम ने चश्मा-ए-आब-ए-हयात पर
Habib Jalib
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Allama Iqbal
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अल्लाह-री नज़ाकत-ए-जानाँ कि शेर में
पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं
नब्ज़-ए-बीमार जो ऐ रश्क-ए-मसीहा देखी
अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद
बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते
बाद मरने के भी छोड़ी न रिफ़ाक़त मेरी