है वसिय्यत कि कफ़न मुझ को इसी का देना
हाथ आ जाए जो उतरा हुआ पैराहन-ए-दोस्त
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वादा-ए-वस्ल और वो कुछ बात है
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब
मुश्किल बहुत पड़ेगी बराबर की चोट है
मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
या-रब शब-ए-विसाल ये कैसा गजर बजा
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
शमशीर है सिनाँ है किसे दूँ किसे न दूँ
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया