हाथ रख कर मेरे सीने पे जिगर थाम लिया
तुम ने इस वक़्त तो गिरता हुआ घर थाम लिया
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हुआ जो पैवंद मैं ज़मीं का तो दिल हुआ शाद मुझ हज़ीं का
जिस ग़ुंचा-लब को छेड़ दिया ख़ंदा-ज़न हुआ
आहों से सोज़-ए-इश्क़ मिटाया न जाएगा
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
अभी कमसिन हैं ज़िदें भी हैं निराली उन की
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़
ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब
ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'