जिस ग़ुंचा-लब को छेड़ दिया ख़ंदा-ज़न हुआ
जिस गुल पे हम ने रंग जमाया चमन हुआ
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सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
कहा जो मैं ने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था
बाक़ी न दिल में कोई भी या रब हवस रहे
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है
हिलाल ओ बद्र दोनों में 'अमीर' उन की तजल्ली है
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा
शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो
गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'
दिल जुदा माल जुदा जान जुदा लेते हैं