आँखें दिखलाते हो जोबन तो दिखाओ साहब
वो अलग बाँध के रक्खा है जो माल अच्छा है
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करता मैं दर्दमंद तबीबों से क्या रुजूअ
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम 'अमीर'
किसी रईस की महफ़िल का ज़िक्र ही क्या है
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
फ़ुर्क़त में मुँह लपेटे मैं इस तरह पड़ा हूँ
हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शमाइल ठहरा
चाँद सा चेहरा नूर की चितवन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह
बरहमन दैर से काबे से फिर आए हाजी
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
अल्लाह-रे सादगी नहीं इतनी उन्हें ख़बर