फ़ुर्क़त में मुँह लपेटे मैं इस तरह पड़ा हूँ
जिस तरह कोई मुर्दा लिपटा हुआ कफ़न में
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कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते
लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब
रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी
तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है
कुछ ख़ार ही नहीं मिरे दामन के यार हैं
मस्जिद में बुलाते हैं हमें ज़ाहिद-ए-ना-फ़हम
शाएर को मस्त करती है तारीफ़-ए-शेर 'अमीर'
छेड़ देखो मिरी मय्यत पे जो आए तो कहा
आहों से सोज़-ए-इश्क़ मिटाया न जाएगा
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी
ख़्वाब में आँखें जो तलवों से मलीं