ख़्वाब में आँखें जो तलवों से मलीं
बोले उफ़ उफ़ पाँव मेरा छिल गया
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जब से बुलबुल तू ने दो तिनके लिए
फूलों में अगर है बू तुम्हारी
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
अल्लाह-रे सादगी नहीं इतनी उन्हें ख़बर
कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं
क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर
अभी कमसिन हैं ज़िदें भी हैं निराली उन की
शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
काबा-ए-रुख़ की तरफ़ पढ़नी है आँखों से नमाज़
हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
मैं रो के आह करूँगा जहाँ रहे न रहे