सदियाँ जिन में ज़िंदा हों वो सच भी मरने लगते हैं
सदियाँ जिन में ज़िंदा हों वो सच भी मरने लगते हैं
धूप आँखों तक आ जाए तो ख़्वाब बिखरने लगते हैं
इंसानों के रूप में जिस दम साए भटकें सड़कों पर
ख़्वाबों से दिल चेहरों से आईने डरने लगते हैं
क्या हो जाता है इन हँसते जीते जागते लोगों को
बैठे बैठे क्यूँ ये ख़ुद से बातें करने लगते हैं
इश्क़ की अपनी ही रस्में हैं दोस्त की ख़ातिर हाथों में
जीतने वाले पत्ते भी हों फिर भी हरने लगते हैं
देखे हुए वो सारे मंज़र नए नए दिखलाई दें
ढलती उम्र की सीढ़ी से जब लोग उतरने लगते हैं
बेदारी आसान नहीं है आँखें खुलते ही 'अमजद'
क़दम क़दम हम सपनों के जुर्माने भरने लगते हैं
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