निकलो भी कभी सूद-ओ-ज़ियाँ से वर्ना
कूचे में तिरे कौन भला आएगा
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मेरी दुनिया में अभी रक़्स-ए-शरर होता है
एक सौदा है लज़्ज़त-ए-ग़म है
ना-उमीदी कुफ़्र है
कोई तो ख़ैर का पहलू भी निकले
ख़ाली भी तो कर ख़ाना-ए-दिल दुनिया से
फ़रेब ग़म ही सही दिल ने आरज़ू कर ली
आलम-ए-वहशत-ए-तन्हाई है कुछ और नहीं
हम से क्या ख़ाक के ज़र्रों ही से पूछा होता
जो शब भर आँसुओं से तर रहेगा
वा'दा है कि जब रोज़-ए-जज़ा आएगा