आबादियों में कैसे दरिंदे घुस आए हैं
मक़्तल गली गली है हर इक घर लहू लहू
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अब किसी अंधे सफ़र के लिए तय्यार हुआ चाहता है
सर-ए-राह मिल के बिछड़ गए था बस एक पल का वो हादसा
सफ़र में हर क़दम रह रह के ये तकलीफ़ ही देते
याद है क़िस्सा-ए-ग़म का मुझे हर लफ़्ज़ अभी
कोई पुराना ख़त कुछ भूली-बिसरी याद
तेशा-ब-कफ़ को आइना-गर कह दिया गया
ख़ुद-कुशी का अलमिया
धूप आती नहीं रुख़ अपना बदल कर देखें
क्या अजब है कि ये मुट्ठी में हमारी आ जाए
अदा हुआ न कभी मुझ से एक सज्दा-ए-शुक्र
जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं
इतनी सारी शामों में एक शाम कर लेना