कोई पुराना ख़त कुछ भूली-बिसरी याद
ज़ख़्मों पर वो लम्हे मरहम होते हैं
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क्या अजब है कि ये मुट्ठी में हमारी आ जाए
अब इस सादा कहानी को नया इक मोड़ देना था
याद है क़िस्सा-ए-ग़म का मुझे हर लफ़्ज़ अभी
सफ़र में हर क़दम रह रह के ये तकलीफ़ ही देते
जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं
फ़सील-ए-जिस्म पे शब-ख़ूँ शरारतें तेरी
इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह
धूप आती नहीं रुख़ अपना बदल कर देखें
अब किसी अंधे सफ़र के लिए तय्यार हुआ चाहता है
लौट कर यक़ीनन मैं एक रोज़ आऊँगा
अदा हुआ न कभी मुझ से एक सज्दा-ए-शुक्र
रक़्स-ए-जुनूँ की गर्मी-ए-तासीर देखना