क्या अजब है कि ये मुट्ठी में हमारी आ जाए
आसमाँ की तरफ़ इक बार उछल कर देखें
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ख़ुद-कुशी का अलमिया
अदा हुआ न कभी मुझ से एक सज्दा-ए-शुक्र
मिरी नज़र में आ गया है जब से इक सहीफ़ा-रुख़
बड़ी फ़र्ज़-आश्ना है सबा करे ख़ूब काम हिसाब का
धूप आती नहीं रुख़ अपना बदल कर देखें
सफ़र में हर क़दम रह रह के ये तकलीफ़ ही देते
इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह
फ़सील-ए-जिस्म पे शब-ख़ूँ शरारतें तेरी
अब इस सादा कहानी को नया इक मोड़ देना था
ये रात ढलते ढलते रख गई जवाब के लिए
जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं