डूबे हुए तारों पे मैं क्या अश्क बहाता
चढ़ते हुए सूरज से मिरी आँख लड़ी थी
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जो बारिशों में जले तुंद आँधियों में जले
दरमियाँ गर न तिरा वादा-ए-फ़र्दा होता
दुआ
दफ़अतन 'अनवर' ख़याल आया है आज उस मुर्ग़ का
जन्नत से निकाला हमें गंदुम की महक ने
माहिर-ए-अमराज़-ए-चश्म
पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी
जुदा होगी कसक दिल से न उस की
मैं ने 'अनवर' इस लिए बाँधी कलाई पर घड़ी
जौहर ओ जवाहिर
आइना देख ज़रा क्या मैं ग़लत कहता हूँ