हर एक लम्हा सरों पे है सानेहा ऐसा
हर एक साँस गुज़रती है हादसात ऐसी
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शायद कोई कमी मेरे अंदर कहीं पे है
मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में फ़िक्र-ओ-फ़न में था
हवस-परस्ती ओ ग़ारत-गरी की लत न गई
यूँ देखने में तो ऊपर से सख़्त हूँ शायद
बाइ'स-ए-अर्ज़-ए-हुनर कर्ब-ए-निहानी निकला
मताअ-ओ-माल न दे दौलत-ए-तबाही दे
असर मिरी ज़बान में नहीं रहा
लिबास गर्द का और जिस्म नूर का निकला
ज़िंदगी मुझ को मिरी नज़रों में शर्मिंदा न कर
बराए-नाम सही कोई मेहरबान तो है
हवस का रंग चढ़ा उस पे और उतर भी गया