फ़लसफ़ी किस लिए इल्ज़ाम-ए-फ़ना देता है

फ़लसफ़ी किस लिए इल्ज़ाम-ए-फ़ना देता है

लफ़्ज़-ए-कुन ख़ुद मिरी हस्ती का पता देता है

हो गया तर्क-ए-मरासिम को ज़माना लेकिन

आज तक दिल तिरी नज़रों को दुआ देता है

थरथराते हुए हाथों से दवा के बदले

चारागर आज न जाने मुझे क्या देता है

कुछ तो होता है हसीनों को भी एहसास-ए-जमाल

और कुछ इश्क़ भी मग़रूर बना देता है

सोज़-ए-उल्फ़त से वो कम-माए-ए-ग़म है महरूम

आतिश-ए-दिल को जो अश्कों से बुझा देता है

पर्दा-दारी भी है इक मस्लहत-ए-ख़ास-ए-जमाल

शौक़ नज़्ज़ारे की क़ीमत को बढ़ा देता है

ज़िंदगी दे के मुसीबत में हमें डाल दिया

कोई यूँ भी कहीं बे-जुर्म सज़ा देता है

दार मिल ही गई मंसूर को वाइ'ज़ वर्ना

कौन दुनिया में मोहब्बत का सिला देता है

हाए उस बेकस-ओ-मजबूर की क़िस्मत 'अर्शी'

शाम से पहले ही जो शम्अ' जला देता है

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