निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा
जो हम फ़रेब न खाते तो और क्या करते
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शौक़-ए-आवारा दश्त-ओ-दर से है
ख़ुलूस-ए-अल्फ़ाज़ काम आया निगाह-ए-अहल-ए-फ़ितन से पहले
हम तो आवारा-ए-सहरा हैं हमें क्या मतलब
यक़ीन-ए-सुब्ह-ए-चमन है कितना शुऊर-ए-अब्र-ए-बहार क्या है
न सहरा है न अब दीवार-ओ-दर है
नशीली छाँव में बीते हुए ज़मानों को
कारवाँ तीरा-शब में चलते हैं
बहुत अज़ीज़ न क्यूँ हो कि दर्द है तेरा
निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते
मौक़ूफ़ फ़स्ल-ए-गुल पे नहीं रौनक़-ए-चमन
हमें तो अपनी तबाही की दाद भी न मिली