मौक़ूफ़ फ़स्ल-ए-गुल पे नहीं रौनक़-ए-चमन
नज़रें जवान हों तो ख़िज़ाँ भी बहार है
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न सहरा है न अब दीवार-ओ-दर है
निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते
रक़्स-ए-आशुफ़्ता-सरी की कोई तदबीर सही
शौक़-ए-आवारा दश्त-ओ-दर से है
नशीली छाँव में बीते हुए ज़मानों को
दर्द के साँचे में ढल कर रह गई
यक़ीन-ए-सुब्ह-ए-चमन है कितना शुऊर-ए-अब्र-ए-बहार क्या है
बहुत अज़ीज़ न क्यूँ हो कि दर्द है तेरा
फ़लसफ़ी किस लिए इल्ज़ाम-ए-फ़ना देता है
उफ़ुक़ के ख़ूनीं धुँदलकों का सुब्ह नाम नहीं
निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा
तमाम हुस्न-ए-जहाँ का जवाब हो के रहा