हम तो आवारा-ए-सहरा हैं हमें क्या मतलब
उन की महफ़िल में जुनूँ की कोई तौक़ीर सही
Allama Iqbal
Habib Jalib
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Gulzar
Wasi Shah
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निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा
शौक़-ए-आवारा दश्त-ओ-दर से है
तमाम हुस्न-ए-जहाँ का जवाब हो के रहा
न सहरा है न अब दीवार-ओ-दर है
कारवाँ तीरा-शब में चलते हैं
बहुत अज़ीज़ न क्यूँ हो कि दर्द है तेरा
अजीब चीज़ है ये शौक़-ए-आरज़ू-मंदी
मौक़ूफ़ फ़स्ल-ए-गुल पे नहीं रौनक़-ए-चमन
हमें तो अपनी तबाही की दाद भी न मिली
आग़ाज़-ए-आशिक़ी का अल्लाह रे ज़माना
निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते
फ़लसफ़ी किस लिए इल्ज़ाम-ए-फ़ना देता है