बहुत अज़ीज़ न क्यूँ हो कि दर्द है तेरा
ये दर्द बढ़ के रहा इज़्तिराब हो के रहा
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निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा
मौक़ूफ़ फ़स्ल-ए-गुल पे नहीं रौनक़-ए-चमन
ख़ुलूस-ए-अल्फ़ाज़ काम आया निगाह-ए-अहल-ए-फ़ितन से पहले
न सहरा है न अब दीवार-ओ-दर है
तमाम हुस्न-ए-जहाँ का जवाब हो के रहा
कारवाँ तीरा-शब में चलते हैं
हमें तो अपनी तबाही की दाद भी न मिली
फ़लसफ़ी किस लिए इल्ज़ाम-ए-फ़ना देता है
निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते
रक़्स-ए-आशुफ़्ता-सरी की कोई तदबीर सही
हम तो आवारा-ए-सहरा हैं हमें क्या मतलब
मता-ए-शौक़ तो है दर्द-ए-रोज़गार तो है