हमें तो अपनी तबाही की दाद भी न मिली
तिरी नवाज़िश-ए-बेजा का क्या गिला करते
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कारवाँ तीरा-शब में चलते हैं
रक़्स-ए-आशुफ़्ता-सरी की कोई तदबीर सही
मता-ए-शौक़ तो है दर्द-ए-रोज़गार तो है
निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा
अजीब चीज़ है ये शौक़-ए-आरज़ू-मंदी
निगाह तेज़ शुऊ'र-ए-बुलंद रखते हैं
बहुत अज़ीज़ न क्यूँ हो कि दर्द है तेरा
न सहरा है न अब दीवार-ओ-दर है
नशीली छाँव में बीते हुए ज़मानों को
मौक़ूफ़ फ़स्ल-ए-गुल पे नहीं रौनक़-ए-चमन
उफ़ुक़ के ख़ूनीं धुँदलकों का सुब्ह नाम नहीं