ऐसे इक़रार में इंकार के सौ पहलू हैं
वो तो कहिए कि लबों पे न तबस्सुम आए
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इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया
जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई
मैं अब तेरे सिवा किस को पुकारूँ
ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का
तुम दूर हो तो प्यार का मौसम न आएगा
फ़र्क़ इतना है कि तू पर्दे में और मैं बे-हिजाब
ग़म-ए-हयात से जब वास्ता पड़ा होगा
अजब अंदाज़ के शाम-ओ-सहर हैं
ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
हालात ने किसी से जुदा कर दिया मुझे
देखिए अहद-ए-वफ़ा अच्छा नहीं