मैं अब तेरे सिवा किस को पुकारूँ
मुक़द्दर सो गया ग़म जागता है
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दो-जहाँ से मावरा हो जाएगा
ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
जब अपने पैरहन से ख़ुशबू तुम्हारी आई
ऐसे इक़रार में इंकार के सौ पहलू हैं
जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए
देखिए अहद-ए-वफ़ा अच्छा नहीं
इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया
न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना
ग़ुंचा ओ गुल माह ओ अंजुम सब के सब बेकार थे
लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी
ये आँसू ढूँडता है तेरा दामन