ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते
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जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई
अजब अंदाज़ के शाम-ओ-सहर हैं
ग़म-ए-हयात से जब वास्ता पड़ा होगा
तुम दूर हो तो प्यार का मौसम न आएगा
ऐसे इक़रार में इंकार के सौ पहलू हैं
इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया
ये आँसू ढूँडता है तेरा दामन
लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी
कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते
ग़ुंचा ओ गुल माह ओ अंजुम सब के सब बेकार थे
न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना