इश्क़ से लोग मना करते हैं
जैसे कुछ इख़्तियार है अपना
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मुझ को हर फूल सुनाता था फ़साना तेरा
आप बिक जाए कोई ऐसा ख़रीदार न था
तस्कीन-ए-दिल को अश्क-ए-अलम क्या बहाऊँ मैं
दिल गया बे-क़रारियाँ न गईं
बहार है तिरे आरिज़ से लौ लगाए हुए
चुपके से नाम ले के तुम्हारा कभी कभी
इश्क़ की गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ से लाऊँ
आह किस से कहें कि हम क्या थे
काहे को ऐसे ढीट थे पहले झूटी क़सम जो खाते तुम
भूले अफ़्साने वफ़ा के याद दिल्वाते हुए
अश्क-ए-गुल-रंग निसार-ए-ग़म-ए-जानाना करें