इधर से आज वो गुज़रे तो मुँह फेरे हुए गुज़रे
अब उन से भी हमारी बे-कसी देखी नहीं जाती
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सहरा से चले हैं सू-ए-गुलशन
बहाना मिल न जाए बिजलियों को टूट पड़ने का
इश्क़ से लोग मना करते हैं
पलकें घनेरी गोपियों की टोह लिए हुए
बहार है तिरे आरिज़ से लौ लगाए हुए
हिजाब-ए-रंग-ओ-बू है और मैं हूँ
आज कुछ मेहरबान है सय्याद
किस तरह खिलते हैं नग़्मों के चमन समझा था मैं
आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला
करम पर भी होता है धोका सितम का
भूलने वाले को शायद याद वादा आ गया
दिल इश्क़ की मय से छलक रहा है