करम पर भी होता है धोका सितम का
यहाँ तक अलम-आश्ना हो गए हम
Habib Jalib
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Rahat Indori
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भूलने वाले को शायद याद वादा आ गया
इधर से आज वो गुज़रे तो मुँह फेरे हुए गुज़रे
आह किस से कहें कि हम क्या थे
काहे को ऐसे ढीट थे पहले झूटी क़सम जो खाते तुम
इश्क़ की गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ से लाऊँ
इश्क़ से लोग मना करते हैं
किस तरह खिलते हैं नग़्मों के चमन समझा था मैं
निगह-ए-शौक़ को यूँ आइना-सामानी दे
झपकी ज़रा जो आँख जवानी गुज़र गई
हिजाब-ए-रंग-ओ-बू है और मैं हूँ
बहार है तिरे आरिज़ से लौ लगाए हुए