इक बात भला पूछें किस तरह मनाओगे
जैसे कोई रूठा है और तुम को मनाना है
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आप का ख़त नहीं मिला मुझ को
निगह-ए-शौक़ को यूँ आइना-सामानी दे
कुछ देर फ़िक्र आलम-ए-बाला की छोड़ दो
भूलने वाले को शायद याद वादा आ गया
आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला
करम पर भी होता है धोका सितम का
सना तेरी नहीं मुमकिन ज़बाँ से
फिरते हुए किसी की नज़र देखते रहे
सहरा से चले हैं सू-ए-गुलशन
तुम्हारा हुस्न आराइश तुम्हारी सादगी ज़ेवर
किस तरह खिलते हैं नग़्मों के चमन समझा था मैं
दिल गया बे-क़रारियाँ न गईं