आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं
साक़ी ने इस मक़ाम को आसाँ बना दिया
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पास-ए-अदब में जोश-ए-तमन्ना लिए हुए
ये नंग-ए-आशिक़ी है सूद ओ हासिल देखने वाले
रिंद जो ज़र्फ़ उठा लें वही साग़र बन जाए
मुझ को ख़बर रही न रुख़-ए-बे-नक़ाब की
सौ बार तिरा दामन हाथों में मिरे आया
पाता नहीं जो लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर को मैं
तू एक नाम है मगर सदा-ए-ख़्वाब की तरह
हल कर लिया मजाज़ हक़ीक़त के राज़ को
इश्क़ है इक कैफ़-ए-पिन्हानी मगर रंजूर है
न खुले उक़्दा-हा-ए-नाज़-ओ-नियाज़
मस्ती में फ़रोग़-ए-रुख़-ए-जानाँ नहीं देखा
मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी