मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
जल्वों के इज़दिहाम ने हैराँ बना दिया
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एक ऐसी भी तजल्ली आज मय-ख़ाने में है
जीना भी आ गया मुझे मरना भी आ गया
इश्क़ की बेताबियों पर हुस्न को रहम आ गया
मैं क्या कहूँ कहाँ है मोहब्बत कहाँ नहीं
सौ बार तिरा दामन हाथों में मिरे आया
चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
पास-ए-अदब में जोश-ए-तमन्ना लिए हुए
बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ न मस्ती है न होश
इक आलम-ए-हैरत है फ़ना है न बक़ा है
गुम कर दिया है दीद ने यूँ सर-ब-सर मुझे
कोई महमिल-नशीं क्यूँ शाद या नाशाद होता है
हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर